Vedic Quotes
प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।
जिसने प्रथम अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया, तृतीय अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चतुर्थ अर्थात संन्यास आश्रम में क्या करेगा?
व्यवहारिक जीवन में इसका महत्व
इस श्लोक के माध्यम से समझाया जा रहा है की यदि समय रहते आपने अपने जीवन के महत्वपूर्ण कार्य संपन्न नहीं किये, तो वृद्धावस्था में आपसे कुछ नहीं होगा.
यह नीतिगत श्लोक हम अपने जीवन पर घटित होते देखते हैं, परन्तु यह हर वर्ष, हर महीने, हर दिन एवं हर घंटे हमारे जीवन में घटित होता है और हम इसके महत्व को नकार देते हैं. यदि वर्ष के महत्वपूर्ण व् उपजाऊ समय हमने खो दिए, तो वर्षा ऋतु अत्यंत दुखदाई होता है. आधुनिक जीवन में यदि महीने के 3 हफ्ते हमने सेल्स टारगेट हासिल नहीं किया, तो निश्चय ही महीने के अंत में परिणाम भुगतने पड़ेंगे.
इतना ही नहीं, सुबह की साधना, तत्पश्चात जीवन-यापन हेतु किये गए कार्य संपन्न नहीं हुए तो सायं काल का पारिवारिक सुख और रात्रि की निद्रा दोनों ही अप्राप्य होंगे. यह जरुरी नहीं की आपने जीवन कैसा जिया; जरुरी है की अब तो गल्तियां न दोहराएँ. उपर्युक्त श्लोक के आधार पर जीवन संपन्न न हुआ न सही; अपना दिन तो संपन्न करें.
यथा द्यौश्च पृथ्वी च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा मे प्राण मा विभेः।। - अथर्ववेद
जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो.
अन्यथा न लें…
आपको हर बुरे कार्यों का परिणाम सोंच लेना चाहिए. उपर्युक्त श्लोक सद्कर्मों के निष्पादन हेतु लिखा गया है. हर व्यक्ति जिससे आप व्यवहार रखते हैं वह आपकी ही भांति एक मनुष्य है और आपके ही जैसा उसमें भी अच्छाईयां और बुराइयाँ दोनों है. आप जैसा व्यवहार करेंगे वैसा परिणाम भी हासिल होगा.
आप निःसंकोच अपनी परिकल्पनाओं को मूर्तरूप दें. हर प्रकार का भय त्यागकर लोगों से मिलें और जीवन के हर पड़ाव पर विजय पताका लहराएँ.
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।। और पढ़ें ....